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Yoga Science

योगः-

        योग शब्द युज् धातु से बना है जिसका अर्थ है जोडना। स्वंय की चेतना को ब्रह्मांड की चेतना से जोडने को योग कहा जाता है। योग भी आयुर्वेद के समान गुरू शिष्य परंपरा के रूप मे आगे बढी। ऐसा कहा जाता है कि योग का ज्ञान आदियोग द्वारा सप्तऋषियों को दिया गया और उनके द्वारा योग का प्रचार प्रसार संपूर्ण विश्व में किया गया। योग का वर्णन सभी वेदो और उपनिषदों में दिया गया है। भगवद्गगीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का वर्णन मिलता है। गीता के अनुसार कर्मों में कुशलता का नाम ही योग है। परन्तु सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने योग को मुख्य भूमिका में रखते हुए लगभग 200 वर्ष ई.पू. योग सूत्र नाम से ग्रन्थ की रचना की। महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त या मन की वृत्तियों का निरोध करना ;रोकना या नियत्रिंत करना ही योग है। योग सुत्र मे योग के आठ अंग बताए गये है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इसके अतिरिक्त हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग, लययोग आदि विभिन्न प्रकार के योग का विकास समय की आवश्यकता के अनुसार समय समय पर होता रहा है। योग न केवल मानसिक स्वास्थ्य अपितु शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रदान करता है साथ ही सभी के बीच समभाव को बढाकर सामाजिक एकरूपता को भी बढाता है। योग मे विभिन्न आसन, प्राणायाम तथा हठयोग की क्रियाएं जैसे नौली, धौती, बस्ति, नेति, त्राटक एवं कपालभाति आदि क्रियाओं से शरीर का शोधन करके स्वास्थ्य की कामना की गई है। आधुनिक समय मे महर्षि अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी कुवलयानन्द आदि ने योग का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में किया। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग को ही स्वामी विवेकानन्द ने राजयोग नाम दिया।

योग का मौलिक स्वरूपः-

        शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए योग को आठ अंगो में विभाजित किया गया है, जिन्हे अष्टांग योग के नाम से जाना जाता है, निम्नानुसार हैः-

  •  यमः- मन को विषयों में आसक्त होने से रोकने, व्यक्ति के आचरण, सामाजिक एवं नैतिक विकास के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपिरग्रह नामक पांच यम बताये गये है।
  •  नियमः- मन एवं शरीर की आंतरिक शुद्धि के लिए शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान नामक पांच नियम बताए गये है।
  •  आसनः- स्थिर एवं सुखपूर्वक बैठना ही आसन कहलाता है।
  •  प्राणायामः- श्वास ;श्वास अंदर लेनाद्ध और प्रश्वास ;श्वास बाहर निकालनाद्ध की गति को रोकना प्राणायाम कहलाता है।
  •  प्रत्याहारः- शरीर की इन्द्रियों एवं मन को अपने विषयो से अलग करना प्रत्याहार कहलाता है।
  •  धारणाः- मन को शरीर के भीतर या बाहर किसी एक देश ;लक्ष्यद्ध पर लगाना धारणा कहलाता है।
  •  ध्यानः- जंहा मन को लगाया जाये उसी एक वृत्ति का लगातार चलना ध्यान कहलाता है अर्थात मन का अन्य विषयो को छोडकर एक लक्ष्य पर स्थिर बने रहना ही ध्यान है।
  •  समाधिः- मन की समस्त वृत्तियों के निरोध या विनाश की अवस्था समाधि है।

योग का प्रयोजनः-

        प्राचीनकाल मे योग का प्रमुख उद्देश्य आध्यात्मिक विकास था, परन्तु वर्तमान मे योग का निम्न प्रयोजन है-

  •  शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए।
  •  मानसिक तनाव को घटाने के लिए।
  •  विभिन्न मनोदेहिक रोगो की रोकथाम एवं चिकित्सा के लिए।
  •  आध्यात्मिक विकास हेतु।

अष्टांग योग परिचयः-

        महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि बताये है। जिनके द्वारा स्वास्थ्य के सभी तीनो आयामों ;शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक को प्राप्त किया जा सकता है।

  • यम के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय ;चोरी ना करने का भावद्ध, ब्रह्मचर्य ;इन्द्रिय संयमद्ध एवं अपिरग्रह ;मोह न करना होते है। ये हमारे सामाजिक व्यहवार की कुशलता को दिखाते है।
  • नियमों के अन्तर्गत शौच ;शारीरिक, मानसिक एवं वाणी का शुद्धिकरणद्ध, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणिधान ;ईश्वर की शरणागति को लिया जाता है। इनसे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है।
  • आसनो का सामान्य अर्थ स्थिर पूर्वक एक ही मुद्रा मे सुख से बैठने, खडे होने अथवा लेटने की स्थिति है। अलग-अलग स्थिति के अनुसार आसनों के बहुत अधिक प्रकार है। विभिन्न आसनों के उपयोग से विभिन्न रोगो मे लाभ प्राप्त किया जा सकता है। आसन करने का अभ्यास प्रशिक्षित योग गुरू के सानिध्य मे ही किया जाना चाहिए।
  • प्राणायाम से तात्पर्य शरीर में श्वास, प्रश्वास की गति को नियंत्रित करते हुए वायु को भीतर और बाहर लेने की क्रिया से है। श्वास लेने को पूरक, श्वास बाहर निकालने का रेचक एवं भीतर व बाहर श्वास को किसी भी स्थिति मे रोकना कुंभक प्राणायाम कहलाता है। हठ योग के ग्रन्थों में आठ प्रकार के कुंभक प्राणायाम बताए गये है, जिनसे विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते है।
  • प्रत्याहार का अर्थ इन्द्रियों को बाह्य वृत्ति से समेटकर किसी एक स्थिति में एकाग्र करने के अभ्यास से है। प्रत्याहार के अभ्यास से ही शिक्षा के विभिन्न विषयों मे एकाग्रता बढाई जा सकती है। सामान्य भाषा में प्रत्याहार से तात्पर्य सब जगह से मन को हटाकर एक लक्ष्य पर एकाग्र करने से है। यम से लेकर के प्रत्याहार तक के पांच अंगो को अष्टांग योग में बंहिरग कहा गया है तथा धारणा, ध्यान व समाधि को अंतरंग योग या संयम से भी जानते है।
  • धारणा से तात्पर्य शरीर के बाहर या भीतर किसी एक स्थान पर मन को लगाये रखने का अभ्यास है। धारणा का सामान्य भाषा में अर्थ हम गहराई से किसी विषय पर चिंतन से भी ले सकते है।
  • ध्यान से तात्पर्य मन की वृत्ति का किसी एक विषय में लगातार बने रहने से है। जिस विषय पर पूर्व में धारणा की गई है, उस विषय पर इतनी अधिक एकाग्रता कि अन्य किसी विषय का भान नहीं रहे, ध्यान कहलाता है। ध्यान के निरतंर अभ्यास से मनुष्य अपनी मानसिक क्षमताओं का विकास कर सकता है।
  • समाधि से तात्पर्य एकाग्रता की वह गहरी अवस्था है, जिसमें ध्यान लगाने वाले विषय और ध्यान लगाने वाला मनुष्य दोनो मे एकात्मा का आभास होता है। समाधि की अवस्था मे अन्य किसी विषय का चिंतन रह ही नही जाता, यह ध्यान की इतनी गहरी अवस्था है कि मनुष्य को स्वंय का आभास ही नहीं रहता है। समाधि द्वारा ही मनुष्य की मानसिक क्षमताओ से परे प्रश्नो के उत्तर खोजेे जा सकते है एवं परम आनंद की प्राप्ति की जा सकती है।

        इस प्रकार अष्टांग योग के विभिन्न अंगो के पालन के द्वारा मनुष्य समरसता पूर्वक आंनद के साथ जीवन व्यतीत कर सकता है।

आसनः-

        पतंजलि के अष्टांग योग मे यम, नियम के बाद तीसरा स्थान आसन का है। पतंजलि के अनुसार स्थिर एवं सुखपूर्वक बैठना आसन कहलाता है। अर्थात् योगी अपनी आवश्यकता के अनुसार जिस भी विधि से स्थिर भाव से सुखपूर्वक बहुत समय तक बैठ सके वही आसन है। आसन का प्रभाव शरीर के विभिन्न अंगों पर पडता है। आसन एवं व्यायामः- व्यायाम का प्रभाव केवल शरीर पर पडता है जबकि आसन से शारीरिक एवं मानसिक शांति की प्राप्ति होती है। योगिक आसनो का प्रभाव शरीर के विभिन्न अंगो पर पडता है जबकि शारीरिक व्यायाम से केवल मांसपेशियों पर ही प्रभाव पडता है। व्यायाम केवल शारीरिक सौष्ठव के लिए किया जाता है जबकि योग का अभ्यास शरीर के साथ-साथ मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास हेतु किया जाता है। आसनो से शरीर में रक्त संचरण बढता है एवं अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों की क्रियाओं में सुधार होता है, जिसका उपापचय पर सकारात्मक प्रभाव पडता है। मुख्यतः आसनो को तीन वर्गो में बांटा जा सकता है-

  •  ध्यानात्मक आसनः- सिद्धासन, पद्मासन, भद्रासन, मुक्तासन, वज्रासन और स्वस्तिकासन प्रमुख ध्यानात्मक आसन है। इन आसनो में स्थिर होकर ध्यान किया जाता है।
  •  विश्रान्तिकर आसनः- शवासन, मकरासन प्रमुख विश्रान्तिकर आसन है। इन आसनो के अभ्यास से तनाव दूर होता है तथा शारीरिक एवं मानसिक विश्रांति की प्राप्ति होती है।
  •  संवर्धनात्मक आसनः- गोमुखासन, धनुरासन, मत्स्यासन, मयूरासन, उत्तानकूर्मासन, मण्डूकासन, शलभासन, मकरासन, भुजंगासन, पादपश्चिमोत्तानासन, चक्रासन, ताडासन, शलभासन, अर्द्ध मत्स्येन्द्रासन, सिंहासन, वीरासन आदि प्रमुख है। इन आसनों का अभ्यास शारीरिक विकास के लिए किया जाता है।

प्राणायामः-

        योग क्रियाओं में शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आसनों के साथ-साथ प्राणायाम का विशेष महत्व है। विभिन्न प्रकार के प्राणायामों का वर्णन योग के ग्रन्थों में मिलता है, जिनका अभ्यास प्रशिक्षित योगी से सीखकर ही करना चाहिए। प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ प्राणों को आयाम या विस्तार देना है। प्राणायाम में मनुष्य अपनी श्वांस-प्रश्वांस की गति का अवरोध करके अपने अनुसार परिवर्तित करता है। श्वांस लेने को पूरक, श्वांस छोडने को रेचक एवं श्वांस रोकने को कुंभक कहते है। सामान्य नाड़ी शोधन प्राणायाम में पूरक, कुंभक और रेचक का अनुपात 16:64:32 होना चाहिए। अर्थात् यदि श्वांस लेने में 16 गिनने तक का समय लगता है, तो 64 गिनने तक श्वांस को रोककर कुंभक करें तथा 32 गिनने तक धीरे-धीरे श्वांस को निकालकर रेचक करें। यह नाड़ी शोधन अथवा अनुलोम-विलोम प्राणायाम का चक्र कहलाता है। कंुभक के आधार पर हठ योग के ग्रन्थों में आठ प्रकार के प्राणायाम बताए गये है- सूर्य भेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूच्र्छा एवं प्लावनी। प्राणायाम करने से प्रकाश का आवरण हटता है, अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति होती है। एकाग्रता बढ़ती है एवं स्वास्थ्य प्राप्त होता है। सभी प्राणायामों का अभ्यास नियम पूर्वक एवं सामथ्र्य के अनुसार ही करना चाहिए। अच्छे गुणों के कारण अनुलोम-विलोम, शीतली और भ्रामरी प्राणायाम को अन्तर्राष्ट्रीय योग प्रोटोकाॅल में सम्मिलित किया गया है।

योगिक षट्कर्मः-

        योग शास्त्र मे शरीर की आन्तरिक शुद्धि के लिए छः उपाय बताये गये है, जिन्हे योगिक षट्कर्म कहते है। इन षट्कर्मो के अभ्यास से शरीर का शोधन होता है। शरीर में मेद/वसा घटने से शरीर हल्का हो जाता है। सामान्यतया निम्नलिखित छः कर्म षट्कर्म के अन्तर्गत आते है।

  •  नौलिकर्मः- उदर की मांसपेशियों को प्रयास पूर्वक उभारने को नल कहते है तथा इस नल को इच्छानुसार घुमाने की क्रिया को नौलिकर्म कहते है। नौलि क्रिया के अन्तर्गत उदर की मांसपेशियों में ऐच्छिक संकुचन ;चालनद्ध किया जाता है, जिससे उदर के अंगो में भी संकुचन होता है एवं उदर के अंगो के कार्यो में सुधार होता है। पाचन क्रिया में सुधार होता है तथा शरीर का भार कम होता है।
  •  धौति क्रियाः- यह अमाशय को शुद्ध करने की विधि है। यह दो प्रकार की होती है वस्त्र धौति एवं जल धौति। जब गीले कपडे को मुंह से धीरे-धीरे निगलकर आमाशय तक ले जाकर पुनः वापस निकालते है वस्त्र धौति क्रिया कहलाती है एवं जब धौति क्रिया में लवण युक्त गुनगुने पानी को पिलाकर वमन/उल्टी द्वारा वापस निकाला जाता है तो इसे जल धौति या गजकरणी क्रिया कहते है।
  •  बस्तिकर्मः- जल या औषधियुक्त द्रव्य से पक्वाशय के प्रक्षालन ;साफ करने की विधि को बस्ति कर्म कहते है। इसमें गुदा मार्ग से जल मलाशय व आंतो में प्रवेश करवाकर पुनः बाहर निकाला जाता है। बस्ति कर्म से पक्वाशय का शोधन होता है तथा मल, आव, कृमि, विष आदि बाहर निकलते है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसी क्रिया को श्एनिमाश् देना कहा जाता है।
  •  नेतिकर्मः- यह नासा मार्ग के शोधन की विधि है। यह दो प्रकार की होती है, जलनेति एवं सूत्रनेति। जलनेतिः- लवण युक्त गुनगुने जल को नेति पात्र मे  लेकर एक नासारन्द्र से अन्दर लेकर दूसरे नासा रन्द्र से बाहर निकालते है, इस क्रिया को जलनेति कहते है। सूत्रनेतिः- इस नेति मे नेतिसूत्र धागा या पतले रबर केथेटर को चिकना करके एक नासा मार्ग से अन्दर डालकर मुह से बाहर निकालते है। सूत्र के दोनो छोरो को पकडकर नासा मार्ग में मृदु घर्षण करते है। नेति क्रिया से नासा मार्ग एवं गला साफ हो जाता है। बार-बार लगने वाली सर्दी-जुकाम में भी लाभ होता है। नेति कर्म से दृष्टि भी बलवान होती है।
  •  त्राटकः- जब मनुष्य एकाग्रचित होकर निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य जैसे दीवार पर लगा हुआ कोई बिन्दू अथवा दीपक की लौ को तब तक देखता है जब तक आखों में आंसू न निकले तो इस कर्म को त्राटक कहते है। इस क्रिया से दृष्टि का विकास होता है। चित्त की एकाग्रता बढती है तथा आलस्य, निद्रा एवं नेत्र के मल की बार-बार उत्पत्ति को रोकने मे सहायक है।
  •  कपालभातिः- लौहार की धोकनी की भांति पूरक ;श्वास अन्दर लेनाद्ध एवं रेचक ;श्वास बाहर निकालनाद्ध ही कपालभाति कहलाता है। कपालभाति कर्म मे अभ्यासी एैच्छिक रूप से बलपूर्वक एवं सक्रिय क्रिया के रूप मे श्वास बाहर निकालता है तथा श्वास अन्दर लेना बिना प्रयास के स्वतः होता है। कपालभाति के अभ्यास से रक्त परिसंचरण, पाचन तंत्र, उदर के अंगो एवं फुप्फुस पर लाभदायक प्रभाव पडता है। शरीर की वसा कम होने से भार कम होता है। चेहरे पर कांति आती है तथा श्लेष्मा सूख जाता है, जिससे जुकाम आदि रोगों में लाभ होता है। कपालभाति के इन्हीं लाभों के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के योगा प्रोटोकाॅल में रखा गया है।