Naturopathy Science
प्राकृतिक चिकित्साः-प्राकृतिक रहन-सहन एवं खान-पान का प्रयोग करते हुए स्वस्थ रहना या बीमार होने पर प्रकृति द्वारा दिये गये तत्वों का प्रयोग करके निरोग हो जाना ही प्राकृतिक चिकित्सा है। इसी क्रम मे विभिन्न प्राकृतिक तत्वों का उपयोग करके प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ। सर्वप्रथम एक साधारण किसान विनसेंट प्रिसनिज ने 18वीं शताब्दी मे जल का उपयोग करके प्राकृतिक चिकित्सा को प्रारंभ किया। सर्वप्रथम प्राकृतिक चिकित्सा शब्द का प्रयोग डाॅ. जोन शील ने सन् 1895 मे किया एवं इसका विशेष प्रचार-प्रसार डाॅ बेनेडिक्ट लस्ट ने किया जिन्हे आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा का पिता कहा जाता है। सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत तत्वों के प्रचार-प्रसार में दो पुस्तकों का मुख्य योगदान रहा है, एक "न्यू सांइस ऑफ हिलिगंश् "डाॅ लुई कुहने द्वारा रचित तथा दूसरी एडाल्फ जस्ट द्वारा रचित "रिटर्न टू नेचर" है। भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार-प्रसार सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने रिर्टन टू नेचर के अध्ययन से प्रभावित होकर किया था। गांधीजी प्राकृतिक चिकित्सा के प्रबल समर्थक थे। गांधीजी के प्रभाव से अनेक राजनेताओं में इसका प्रचलन बढा, जिनमें मुख्यतः स्वर्गीय श्री मोरारजी देसाई, वी.वी. गिरी एवं विनोबा भावे प्रमुख रहे। पाचन शक्ति की कमी से शरीर में मल मूत्र एवं हानिकारक तत्व एकत्रित होते रहते है। अतः इन हानिकारक तत्वों का विभिन्न प्राकृतिक उपायो से शरीर से बाहर निकालना तथा रोगग्रस्त मनुष्य को प्रकृति की ओर लाना ही प्राकृतिक चिकित्सा का उद्देश्य है। भारतीय दर्शन एवं आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश नामक पंच महाभूतो से मिलकर बना होता है, इन्ही तत्वों के भली प्रकार से उपयोग द्वारा मनुष्य को स्वस्थ भी रखा जा सकता है। प्रकृति मे रहने वाले अधिकतर जीव-जन्तु स्वंय का उपचार किसी ना किसी प्राकृतिक विधि द्वारा ही करते है। प्राकृतिक चिकित्सा मुख्य रूप से विजातीय तत्वों के शरीर मे संचय होने, रक्त की अशुद्धि एवं शरीर मे जीवनीय शक्ति की कमी होने को रोगों का मुख्य कारण मानती है। प्राकृतिक चिकित्सा मे आहार को ही औषधि माना गया है, इसीलिए आहार के विभिन्न प्रकार और उपयोग का विस्तृत वर्णन प्राकृतिक चिकित्सा मे मिलता है। प्राकृतिक चिकित्सा मे वायु एंव आतप का महत्वः-प्राकृतिक चिकित्सा मे प्रकृति से प्राप्त तत्वों का ही उपयोग शरीर के स्वास्थ्य के लिए किया जाता है, जैसे हवा, पानी, सूर्यप्रकाश, मिट्टी आदि। वायु का स्वास्थ्य में विशेष महत्व है। बिना श्वांस लिए हम जीवित नहीं रह सकते। श्वांस छोडते समय हम कार्बनडाईअक्साइड के साथ-साथ विजातीय तत्वों को भी बाहर निकालते है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार स्वास्थ्य के लिए वायु का प्रयोग निम्न रूप से किया जा सकता है-
इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग चिकित्सा मे किया जाता है। प्रकाश के सात अलग-अलग रंगो से भी स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। जैसे बैंगनी रंग का प्रकाश रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है, नीला प्रकाश शरीर में शीतलता लाता है, आसमानी प्रकाश क्रोध को शांत करता है, हरा प्रकाश रक्त शोधक एवं नेत्रों की दृष्टि बढ़ाने वाला है, पीला प्रकाश बुद्धि को बढ़ाता है और शरीर को उत्तेजित करता है, नारंगी रंग का प्रकाश भूख में वृद्धि करता है तथा मानसिक शक्तिवर्धक है, लाल रंग का प्रकाश शरीर की संवेदनाएं बढ़ाता है एवं नाडी दर में वृद्धि करता है। इसके अतिरिक्त प्रातः काल खुले बदन सूर्य के प्रकाश में घुमने से जीवनीय शक्ति एवं विटामिन डी की प्राप्ति होती है। विभिन्न प्रकार के रंगो के उपयोग के लिए उन्हीं रंगो की कांच की बोतलो में पानी अथवा तेल भरकर उसे तीन से चार घन्टे सूर्य प्रकाश में रखें फिर उसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए बाह्य एवं आभ्यातंर रूप से किया जा सकता है। स्नान से पूर्व सूर्य की किरणों में पन्द्रह से बीस मिनट लेटना भी आतप स्नान/सन बाथ कहलाता है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास, विश्रमण, जल एवं मृतिका का उपयोगः-उपवासः-उपवास, प्राकृतिक चिकित्सा की महत्वपूर्ण एवं लाभकारी विधि है। सामान्यतः उपवास का अर्थ भोजन ग्रहण न करना होता है, परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा में यह स्वास्थ्य रक्षा एंव रोगियों की चिकित्सा की अत्यन्त प्रभावकारी विधि है। प्राचीन काल से ही उपवास को धार्मिक उपक्रम के रूप में अपनाने के पीछे इसकी स्वास्थ्य में उपयोगिता ही है। आधुनिक समय में विकृत खान-पान से भोजन का पाचन उचित रूप में नही होने से आम का निर्माण होता है, जिससे उदर रोग एवं अनेक बीमारियां होती है। पाचन शक्ति के कम होने से उपापचय की क्र्रियाओं में भी विकृति आ जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन विकृतियों का उपचार उपवास द्वारा किया जाता है। उपवास द्वारा आमाशय खाली रहने के कारण आकाश तत्व की समावस्था बनी रहती है। उपवास से पाचक अग्नि तीव्र होती है, उदर रोगों में लाभ होता है एवं शरीर व मन हल्का होता है। स्वस्थ व्यक्ति को समय-समय पर उपवास करना चाहिए एवं रोगी व्यक्ति को अपने शरीर के सामथ्र्य को ध्यान मे रखते हुए उपवास करना चाहिए। यदि उपवास के समय दुर्बलता महसूस हो तो मुनक्का, किशमिश, नारियल पानी, फलों का रस या नींबू का रस थोडी-थोडी मात्रा में लेना चाहिए। उपवास दो प्रकार का है- पूर्ण निराहार एवं फलाहार। इसके अतिरिक्त निर्जल एंव सजल उपवास भी प्रचलित है। विश्रमणः-विश्राम हमारी दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है। लगातार शारीरिक श्रम करने, मानसिक श्रम करने अथवा खेल-कूद आदि के बाद शरीर थक जाता है और शरीर में ऊर्जा कम होने लगती है। शरीर एवं मन को पुनः तरो-ताजा करने के लिए सुखमय वातावरण में शवासन की अवस्था में थोडे समय के लिए आराम पूर्वक लेटकर विश्रमण का अभ्यास करना चाहिए। मन में सकारात्मक चिंतन के साथ श्वांस एवं प्रश्वांस पर ध्यान केंद्रित करने से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ होता है। जल चिकित्साः-प्राकृतिक चिकित्सा में जल का बहुत अधिक महत्व है। डा जे.एच. किलोग ने जल चिकित्सा पर बहुत अधिक कार्य किया। इनकी “रेशनल हाइड्रोथैरेपी” जल चिकित्सा की सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है। जल की तरलता, अवशोषण, घुलनशीलता, विसर्जन एवं तापनियामक गुणों के कारण यह शरीर से विजातीय तत्वों के साथ-साथ उपापचय से बने अन्य विषैले तत्वों को भी शरीर से बाहर निकालने में सहायता करता है। जल का उपयोग आभ्यांतर एवं बाह्य दो विधियों से किया जाता है। बाह्य विधियों में कटि स्नान, मेहन स्नान, पाद स्नान, तरेरा नीप, पिण्डली स्नान, पृष्ठवंश स्नान, हस्त स्नान एवं जलमग्न स्नान, आदि विभिन्न स्नानों एवं ठण्डे व गर्म जल की पट्टीयों तथा लपेटों के माध्यम से चिकित्सा की जाती है। ये भी तापमान के आधार पर शीतल एवं उष्ण दो प्रकार के होते है। आभ्यांतर प्रयोग में उषापान, कुंजल, जलनेति, जलबस्ति आदि विधियों को लिया जाता है। मृतिका उपयोगः-प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यह शरीर मिट्टी से बना है, एवं मिट्टी में पैदा हुए अन्न, आहार आदि से ही शरीर का निर्माण एवं वर्धन होता है। मिट्टी के रंगो के आधार पर एवं स्थान के आधार पर उनके अलग-अलग उपयोग प्राकृतिक चिकित्सा मे बताए गये है। मिट्टी मे त्वचा के रोगों को एवं घावों को ठीक करने की अद्भुत क्षमता होती है। विभिन्न प्रकार के लेप एवं पट्टीयों के रूप में मृतिका का उपयोग किया जाता है। कील-मुहांसो के लिए मुलतानी मिट्टी का लेप एवं बालों की समस्या में तालाब की मिट्टी का लेप तो भारत में घर-घर में प्रचलित है। मिट्टी में घुलाने व अवशोषण करने की शक्ति होती है जिससे यह विजातीय द्रव्यो को घुलाकर अवशोषित कर लेती है। ऊनी या सूती वस्त्र खण्ड के माध्यम से गीली मिट्टी को यथा स्थान बांध देना ही मृतिका-पुलटिस है। मिट्टी की पट्टी गर्मी को खीचती है और विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालती है। प्राकृतिक चिकित्सा में मृतिका स्नान भी किया जाता है। एडाल्फ जस्ट के अनुसार पाचन क्रिया को ठीक करने के लिए जमीन पर सोने से बढकर दूसरा कोई उपाय नही है। उन्होंने भूमि सेवन के दो उपाय बताये- नंगे पांव जमीन पर चलना एवं टहलना तथा जमीन पर लेटना व सोना। धरती के सीधे सम्पर्क से पृथ्वी की जीवनीय शक्ति प्राप्त होती है। |