आयुर्वेद चिकित्सा सेवा
आयुर्वेद चिकित्सा सेवा
आयुर्वेद(आयुः+वेद) इन दो शब्दों के मिलने से बने आयुर्वेद शब्द का अर्थ है ''जीवन विज्ञान''। आयुर्वेद का प्रलेखन वेदों में वर्णित है। उसका विकास विभिन्न वैदिक मंत्रों से हुआ है, जिनमें संसार तथा जीवन, रोगों तथा औषधियों के मूल तत्व/दर्शन का वर्णन किया गया है। आयुर्वेद के ज्ञान को चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में व्यापक रूप से प्रलेखित किया गया था। आयुर्वेद के अनुसार जीवन के उद्देश्यों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए स्वास्थ्य पूर्वापेक्षित है। आयुर्वेद मानव के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक और सामाजिक पहलुओं का पूर्ण समाकलन करता है, जो एक दूसरे को प्रभावित करते है।
आयुर्वेद का तत्व ज्ञान पंचमहाभूतों के सिद्धांत पर आधारित है, जिनसे सभी वस्तुओं एवं जीवित शरीरों का निर्माण हुआ है। इन पंच तत्वों का संयोजन त्रिदोष के रूप में वर्णित है, उदाहरणतः वात (आकाश+वायु), पित्त (अग्नि + तेज) तथा कफ (जल+पृथ्वी)। ये तीनों दोष प्राणियों में पाए जाते है। मानसिक आध्यात्मिक गुण सत्व, रजस् और तमस् के रूप में वर्णित है। सत्व, रजस एवं तमस् के विभिन्न परिवर्तन तथा मिश्रण मानव प्रकृति तथा व्यक्तित्व का गठन करते है। आयुर्वेद मानव शरीर को तीन दोषों , पांच तत्वों (पंच महाभूत), सात शरीर तंतु (सप्त धातु), पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंचकर्मेन्द्रियों, मन (मनस्), ज्ञान (बृद्धि) तथा आत्मा (आत्मन्) का संयोजन मानता है। आयुर्वेद का सिद्धांत इनकी संरचना तथा क्रियाओं की संतुलित क्रिया शीलता को लक्ष्य मानता है जो अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है। आंतरिक तथा बाह्रा घटकों में किसी प्रकार का असंतुलन रोग का कारण है तथा विभिन्न तकनीकों, प्रक्रियाओं, पथ्यापथ्य, आहार तथा औषधियों के माध्यम से संतुलन को पुनः स्थापित करना ही चिकित्सा है।
आज समस्त विश्व का ध्यान आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रणाली की ओर आकर्षित हो रहा है, जिसके तहत उन्होनें भारत की अनेक जडीबूटियों का उपयोग अपनी चिकित्सा में करना शुरू कर दिया है। आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति की यह विशेषता है कि इनमें रोगों का उपचार इस प्रकार किया जाता है कि रोग जड से नष्ट किया जाए एवं पुन: उत्पति न हो।
आयुर्वेद में रोगों की पहचान एवं परीक्षण विभिन्न प्रश्नों और आठ परीक्षणों, जैसे नाडी, मूत्र, मल, जिहवा, शब्द(आवाज) स्पर्श्ा, नेत्र, आकृति द्वारा की जाती है।
आयुर्वेद मानव को लघु ब्रह्माण्ड (यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड) की प्रतिकृति के रूप में मानता है। इस पद्धति में चिकित्सा व्यक्तिपरक होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए औषधिका नुस्खा लिखते हुए उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्थिति, प्रकृति, लिंग, आयु, चयापचय (अग्नि) कार्य व्यवहार की प्रकृति, निद्रा तथा आहार आदि अन्य घटकों पर विचार करना आवश्यक है। आयुर्वेद चिकित्सा के दो प्रकार है (क) स्वास्थ्य संरक्षण एवं (ख) रोगहरण । स्वास्थ्य संरक्षण के भाग को आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त कहा जाता है तथा इसमें व्यक्तिगत स्वास्थ्य विज्ञान नियमित दिन चर्या, उचित सामाजिक व्यवहार तथा रसायन सेवन जैसे कायाकल्प करने वाली वस्तुएं/भोजन और रसायन औषधियां आदि आते है, रोगहर चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग, विशिष्ट आहार और जीवनचर्या शामिल है, जिससे उत्पन्न रोग को ठीक किया जाता है।
आयुर्वेद की विशेषताएं:-
- संहिताकाल (1000 ई0 पूर्व0) के दौरान आयुर्वेद का आठ विश्ोष शाखाओं में विकास हुआ, जिसके कारण इसे अष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है,वे है:
कायचिकित्सा (इंटर्नल मेडिसिन)
कौमारभृत्य (पैडिएट्रिक्स)
ग्रह चिकित्सा (साइक्येट्री)
शालाक्य (ई.एन.टी)
शल्य तंत्र (सर्जरी)
विष तंत्र (टाक्सिकॉलोजी)
रसायन (जिरेएट्रिक्स)
वाजीकरण (साइंस ऑफ विटिलिटि)
- आयुर्वेद में शिक्षण एवं प्रशिक्षण के विकास के पिछले 50 वर्षो में अब इसे विशिष्ट शाखाओं में विकसित किया गया है।वे हैः
आयुर्वेद सिद्धांत (फंडामेंटल प्रिंसीपल्स आफ आयुर्वेद)
आयुर्वेद संहिता
रचना शारीर (एनाटमी)
क्रिया शारीर (फिजियोलॉजी)
द्रव्यगुण विज्ञान (मैटिरिया मेडिका एंड फार्माकॉलाजी)
रस शास्त्र
भैषज्य कल्पना (फार्माकॉलाजी)
कौमार भृत्य (पेडियाट्रिक्स)
प्रसूति तंत्र (ऑबस्ट्रेटिक्स एंड गाइनेकोलॉजी)
स्वस्थ वृत (प्रीवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन)
कायचिकित्सा (इंटर्नल मेडिसिन)
रोग निदान (पैथोलॉजी)
शल्य तंत्र (सर्जरी)
शालाक्य तंत्र (ई.एन.टी.)
मनोरोग (साईकियाट्री)
पंचकर्म
उल्लेखित विशिष्ट शाखाओं या विषय- विभागों के अनुसार पाठ्क्रम बनाये गये है तथा अध्ययन-अध्यापन एवं गवेषणाएं हो रही है।